मृगतृष्णा सी चाहत मेरी

 मृगतृष्णा सी चाहत तेरी

मौसम चाहे कोई भी हो 

बुझ कर भी यह बुझती नहीं...

और हठी चातक सी है प्यास मेरी,,

समंदर की लहरों पर मैं खेल रही

पर नजरें मेरी आसमान को ही तक रही

ऐ बरखा तेरे दीद को

नैन मेरे तरस रहे

जाने कब तेरे दरस होंगे

और प्यास मेरी बुझेगी..

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