रेत के कण सा प्यार तेरा
सहेजते तो सहेजते भला हम कैसे..
बिखरते जमीं पर चले गए आहिस्ते-आहिस्ते
मुट्ठी में बन्द कर के बैठी थी मैं प्यार तेरा,
सब से चुरा कर,, सबसे छुपा कर ,,
सहेजा मैंने तेरे प्यार को दिल में कुछ इस तरह,,
कि इस पर किसी की नजरे भी न पड़ने दी...
पर तेरा प्यार निकला,, महज रेत का ही कण,,
बस फिसलता गया, फिसलता गया...
और फिसल ही गया .....!!!

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