बसन्त के साथ तुम भी आओ


 

मैं चाहती हूं कि बसंत के साथ-साथ तुम भी आ जाओ,  

ज्यो बसंत अपने साथ

ठंडी मदमस्त हवायें ले लेकर आया

मैं चाहती हूं तुम भी मेरे लिए चाहत अपनी ले कर आओ,

जब भी देखती हूँ,

नवकोंपलों से सृजीत सूखे पेडो़ं को मैं

तुम्हारे प्रेम से रिक्त हृदय में मेरे

छवि तुम्हारी तैर सी जाती है,

चारों ओर ज्यो खिल रहे हैं

रंग विरंगे पुष्प कलियाँ मनभावन

तुम भी आकर मेरे मन में भर दो प्रेम अपना अपार

बाँटना चाहती हूँ तुम संग मैं अपनी हर बात.

पतझड़ के शाम रहे हों

या शीत की ठिठुरती ठण्ढी रात..

हर वक्त का हर पल का

हर हाल मैं सुनाना चाहती हूँ तुम्हे

बरसात में भीगते पेडो़ं को देखती हूँ मैं जब

पत्ते-पत्ते पर पडी़ पानी की हर बुँद में

तुम्हे ही ढूँढने लगती हूं मै

फूलों पर मंडराते भंवरे

अपने प्रेम रंग में रंग रहें ज्यो उन्हे,

तुम आकर रंग लो अपने रंग में मुझे,

मधुमासी तितलियाँ आती हैं

मुझे तुम्हारी याद दिलाने को

ऐसे में तुम आ जाओ कि

बसंत मेरा न फीका पड़ जाए

तुम बिन हृदय मेरा ऐसे है

जैसे गृष्म में झुलसता मरूस्थल

जैसे पुष्पविहीन शुष्क कोई पौधा

महक फूलों की चारों तरफ फैली है,

ऐसे में तुम्हारी कमी मन को खल सी रही है

विरह की अग्नि में मन झुलस रहा कि

मैं चाहती हूं.....

मेरी प्रतीक्षा को न तुम व्यर्थ करो

इस बार बसन्त के साथ-साथ तुम भी आ जाओ,  


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