प्रेम
प्रेम पर्याप्त है अपने में।
इसे समझने या समझाने के लिए किसी भाषा, व्याकरण विशेष की कोई आवश्यकता नही होती..
बात भाव की है, भाषा की नहीं है। अंतर्तम की है।
प्रेम पुजा भी है और प्रतीक्षा भी,
प्रेम उपासना भी है और तपस्या भी,
प्रेम का कोई आकार-विकार नही होता,
प्रेम कभी अपूर्ण नही होता,
प्रेम सर्वथा सम्पूर्ण परिपूर्ण है..
प्रेम मुक-बधीर भी है और वाचाल भी,
प्रेम का कोई परिमाप नही
प्रेम जहाँ जिस रूप में रम जाता है, बस वहीं का और उसी रूप का हो जाता है...!!

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