कुछ कुछ तो.. दिसम्बर और जनवरी सा ही है रिश्ता हमारा, एक दुसरे के जितने समीप है मन हमारा, उतने ही हैं दूर हम, निकट आकर भी ज्यों हमारा मिलना पूर्णतया असंभव है, विछोह के धागे के दोनो सीरों पर बंधे हैं ज्यो हम और तुम, एक दुसरे से मिलने की आस में, हर मौसम को लांघ कर आगे बढते हुए भी, बिछड़ना ही है नियती ज्यो अपना..... हसरतें हजारो हृदय में लिए बढते हैं कि.. मिल सकें हम तुमसे, पर विवशता तो देखो भाग्य की, फिर भी मिल नही सकते.. हम दिसम्बर से बढते हैं तो, नियती जनवरी सा दामन बचा कर अपना, आगे हमसे बढ़ जाती है...!!
फिर क्या मिन्नत, क्या दुआ और क्या फरियाद करना खता गर है तो खता सही क्या खता को यूँ याद करना गुजरी बातें, गुजरे लम्हे पल जो बिछड़ गए क्या उन पलों के दर्द में खुद को बर्बाद करना रह गई जो मोड़ कहीं पीछे क्या उस रास्ते पर फिर से मुड़ना अजनबी जो जिन्दगी में आए क्या उनके छोड़ जाने गम करना जो साये हुए ही नही कभी अपने क्या उन सायों के पीछे भागना हाथ जो छुडा़ गए बीच सफर में क्या उनके लिए पलके भिगोना..!!
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