मैं तुमसे फिर मिलूंगी
मैं तुमसे फिर मिलूंगी, तुम रखना यकिन,
मैं तुमसे फिर मिलूंगी, तुम करना मेरा इन्तजार,
न तुम्हारे शहर में, न मेरे शहर में, न इस पूरे जहान में कहीं,
मैं तुमसे वहाँ मिलूंगी,
जहाँ सूरज ढलता है, मैदान के उस ढलान पर मिलूंगी,
जहाँ तुम्हारे मेरे बीच कोई बन्धन नही होगा,
न समाज का, न इस मिथ्या जग का,
जहाँ न तुम्हारे मर्यादे का ख्याल होगा न मेरे लिए बने किसी लक्ष्मणरेखा का भान होगा,
जहाँ उम्र की सीमा का कोई मतलब नही होगा,
जहाँ न सही और गलत का कुछ अवसाद होगा,
सुनो, मैं तुमसे वहीं मिलूंगी,
वहाँ तुमसे कहूंगी मैं अपने दिल की सारी अनकही बातें,
और सुनूंगी तुम्हारे दिल की सारी अनकही अनसुनी जज्बातें
मैं तुमसे वहीं मिलूंगी, तुम करना मेरा इन्तजार..!!

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