बदलते मिजाज तुम्हारे


 बदलते मौसम से बदलते तुम

तुम्हारे बदलते शख्सियत से

डर सा अब कुछ होने लगा है

कितना तुम्हें जानती हूं मैं

खुद से ही दिल अब मेरा

सवाल ये करने लगा है..

कुछ इस कदर मैं टूट गई हूं

शायद कुछ कुछ तेरे इश्क से ही 

रूठ सी गई हूं मैं..

तुम हवा के झोंके से जब 

रूह को छूकर गुजरते हो 

तुम्हें यकीन नहीं इस बात का 

जर्रा-जर्रा दिल का मचल जाता है

टूट कर मैं कहीं बिखर ना जाऊं

ऐसे दिल्लगी ना तू मेरे साथ कर

तेरे इश्क के सुरूर में

खुद को यूं बर्बाद किए बैठी हूं

तुझे इल्म ही नहीं मेरी इस बेबसी का

दो घड़ी का तेरा ओझल होना 

मेरी नजरों से 

जाने क्यों पल वो 

कयामत से कम नहीं लगती..!!

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