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नवंबर, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

तुमसे मैं चाहती हूँ ये प्रेमोपहार

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 उफ्फ कितना सुकून, कितना इतमीनान है तुम्हारी आँखों में, देखती हूँ जब भी मैं इनमें, बस इनमें खो सी जाती हूँ मैं, तुम्हारी बातों में जैसे कोई सम्मोहन, आकर्षण सा है, मैं तुम्हारी बातों के इंद्रजाल में ज्यों उलझती सी चली जाती हूँ, मुझे बस तुम्हारा साथ चाहिए, मेरे मन नें बस तुम्हारे साथ की कामना की है, मुझे तुमसे प्रेमोपहार में बस तुम्हारा साथ चाहिए, तुम्हारा निश्छल, पारदर्शी, और सम्पूर्ण प्रेम चाहिए, तुमसे बस इस बात का आसरा और प्रतिज्ञा चाहिए कि आजीवन तुम्हारे हृदय पर मेरा आधिपत्य हो, और किसी वस्तु की मुझे कोई चाह नही तुमसे, तुम्हारा सम्पूर्ण प्रेम और प्रीत ही मेरी किमती और अमुल्य सम्पत्ति है... 

मैं चाहती हूँ तुम्हे एक प्रेमपत्र लिखूँ

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 Social media की दुनिया से परे हट कर, आज तुम्हे एक पत्र लिखना चाहती हूँ.... जो एहसास है मेरे दिल में छुपे तुम्हारे लिए शब्दों का रूप उन्हे मैं देना चाहती हूँ.... अपने दिल के सारे अरमानों को, ख्वाहिशों को, शब्द रूपी पुष्पों के माला में मैं पिरोना चाहती हूँ... तुम्हारी यादों को, तुम्हारी बातों को,  खत में सजाते हुए महसुस करना चाहती हूँ... Mobile में जो लिख भेजुंगी मैं तुम्हे, निश्चित ही कभी ना कभी delete हो जायेंगे वो, पर मैं चाहती हूं जो हाल-ए-दिल मैं अपना बयान करूँ, वो ताउम्र, आजीवन तुम्हारे हृदयस्थल में अपना स्थान बनाए रखें , बेशकिमती, मुल्यवान किसी कोहिनुर हीरे की तरह.. और जब-जब तुम देखो मेरे उस प्रेम पत्र को, तुम्हारे हृदय में प्रेम मेरे लिए और भी बढ़ता रहे..!!

जिन्दगी की रफ्तार

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 बडी़ तेज रफ्तार में निकल रही है, ऐ जिन्दगी तू... एक चालान तो तेरी भी बनती है...!!

कभी चाहा नही हमने

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 कभी चाहा नही हमने... कि यूं दूर तुमसे हो जाएँ... वक्त के हाथों यूँ मजबूर हो जाएँ.. तुमसे दूर होकर तुम्हारा दिल दुखाएँ... कभी चाहा नही हमने... कि तुम कभी हम पर बेवफाई का... या दिल दुखाने का इल्जाम लगाओ... और तुम्नारे तोहमतों से दिल हमारा दुखे.. पर शायद सच्चाई यही है कि.. कहाँ होती है पूरी वो बात..? जो हम चाहते हैं..जो हम सोंचते हैं...

मृग मारीचिका

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 कुछ शब्द, कुछ लफ्ज़,, कुछ अल्फ़ाज़,, जो कभी-कभी हमारे जेहन में आते हैं,, और अनायास ही किसी का शक्ल अख्तियार कर लेते हैं,,, एक ऐसा शक्ल जो..... सिर्फ एक छलावा है, परछाई है, मृग मरीचिका है,,, हम जिसके पीछे भाग सकते हैं, देख सकते हैं,,,पर उसे कभी पा नहीं सकते...!!

थोडी़ सी बेवफाई

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 जरा सी बेवफाई तो उनमें भी है.. बेशक वहम पाले बैठे हों..  वो मासुमियत की.. दावे हजार कर रहे हो.. अपनी वफा के... पर फिर भी जरा सी बेवफाई तो उनमें भी है...!!

तेरी आँखें

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 बडी़ नखरेबाज है ये नजरे मेरी     तुम्हे छोड़ देखे न किसी को...     क्यो इतना आवारा है ये दिल मेरा   तुम्हे छोड़ सोचे भी न और किसी को..

इंसानी फितरत है

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 इंसानी फितरत है ये लोग तब तक ही साथ रहते हैं जब तक उनको कोई और न मिल जाए.... जैसे ही कोई और मिल जाए,, मन भर जाता है और वो दूर हो जाते हैं..

खुशबु तुम्हारे प्यार की

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 हरसिंगार, मोगरे की भीनी, मोहक, आकर्षक महक के जैसा ही तो एहसास कराता है प्रेम तुम्हारा मुझे, उद्वेलित हृदय को मेरे अभ्यंतर तक सुवासित कर प्रेम बर्षा में तर सा कर देता है..!!

आसान नही पुरुष होना पुरुष का

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 आदमी का पुरुष होना स्वंय में ही बहुत बडी़ उपलब्धी है, पुरुष होने के लिए हृदय को बहुत ही मजबुती से कठोर बनाना पड़ता है, अपने जज्बातों को बडी़ मुश्किल से हृदय में सहेज कर सम्भालना पड़ता है, अथाह, असिम उम्मीदों के जीते जागते तस्वीर को साकार करना पड़ता है,           जुबान से दर्द को उजागर कर नही सकते           खामोशी ही जुबान बन जाती है पुरुषों की,           आँखों के अश्रु किसी को दिखा नही सकते           समाज में शर्मसार होने का भय है हृदय में,          अथाह दर्द और पीड़ उर में अपने छुपाए,          प्रियजनों के समक्ष मौन मुस्कुराहट लिए रहते हैं,      माथे पर पडी़ सिलवटों को ये ला सकते नही घर के भीतर      कितनी भी हो परेशानियाँ, सहज हर पल ही है बने रहना      घर परिवार की खुशियों में ही समाहित है पुरा जीवन     काम छोड़कर कुछ दिन घर पर बैठना बेहद शर्मनाक है      खुशियो...

तुम बिन

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 आकुल, व्याकुल ह्दय मेरा तुम बिन, व्यथित, व्यग्र सा प्रतित हो रहा, विरहन सी मैं भटक रही, मन अधीर, आतुर सा हुआ जा रहा..!!

रात ठहर गई है मुझमें

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 बस इक आस में ... तेरे वादे सच हो जाए ,  इस एहसास में.. तेरा मुझमें होने के,  झूठी एक कयास में... यूं ही सोंचते... ये रात ठहर गई है मुझमें...!!

कुछ गुंजायश है बाकि अभी

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 शायद अब भी कुछ गुंजाइश तो बाकी है, तेरे मेरे दरमिया.... शायद... कुछ अहसास, तुझसे हुई पहली मुलाकात की.. कुछ यादें, तुझसे हुई पहली बात की.. तेरे बातों में छुपी अपनेपन की महक की, शायद कुछ गुंजाइश तो अब भी बाकी है... तेरे ख्वाबों की, तेरे ख्यालों की, कुछ अनसुलझे से सवालों की.. तुझसे गुफ्तगु कर मिले खुशियों की.. तेरे ऐतवार की हद की... कुछ अधूरे किस्सों की.. तो कुछ अनकहे जज्बातों की.. शायद कुछ गुंजाइश तो अब भी बाकी है... जो मैं भूलना चाह कर भी, तुझे भूल नही पा रही हूँ..!!

तुम्हारी आँखों में झाँका है जबसे

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 अक्श मेरा ही अब मुझे भाने लगा है.. जब से निहारा है मैंने स्वंय को उसके आँखों में.. काजल, बिन्दी, रोली, कुमकुम...कभी न भाये मुझे, पर अब न जाने क्युं, इक मुहब्बत सी इनसे हो गई है, न जाने क्या था उसके आँखों में, जब झांका मैंने, सजने, संवरने को दिल चाहने लगा है, आईना में भी अक्श मेरा सुहाया नही इतना, जितना उसकी आँखों ने सराहा है मुझे..!!

प्रेम

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 प्रेम पर्याप्त है अपने में। इसे समझने या समझाने के लिए किसी भाषा, व्याकरण विशेष की कोई आवश्यकता नही होती.. बात भाव की है, भाषा की नहीं है। अंतर्तम की है। प्रेम पुजा भी है और प्रतीक्षा भी, प्रेम उपासना भी है और तपस्या भी, प्रेम का कोई आकार-विकार नही होता, प्रेम कभी अपूर्ण नही होता, प्रेम सर्वथा सम्पूर्ण परिपूर्ण है.. प्रेम मुक-बधीर भी है और वाचाल भी, प्रेम का कोई परिमाप नही प्रेम जहाँ जिस रूप में रम जाता है, बस वहीं का और उसी रूप का हो जाता है...!!

स्मृतियों के अवशेष

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 स्मृतियों के अवशेष तुम्हारे, कुछ तो बचे हैं शेष, मेरे इस मन-मस्तिष्क में, जो अब भी हैं बेहद विशेष,

क्या हुआ जो मिल न पाएँ

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 सुनो.. क्या हुआ जो मिल न पाएँ हम इस जनम में, सृष्टि को शायद भाया न हो मिलना हमारा, पर दिल मेरा नाउम्मीद अब भी हुआ नही है, ऐतवार कुछ तुम भी रखना... इस जनम नही तो ना सही, बेशक अगले जनम, किसी और जनम, मिलुँगी मैं अवश्य तुमसे, हो सकता है, मिल सकूं न तुमसे मैं "मैं" बनकर.. पर मिलना हमारा तय है, हो सकता है, मैं मिलूं तुमसे, बहती सरिता की चंचल धारा बन, सरसराती ठण्ढी संदिली पवन बन कर, किसी मन्दिर में पडे़ कुसुम सुमन बन कर, या फिर तुम्हारे घर के आँगन के तुलसी बन कर.. पर मैं तुमसे मिलुंगी अवश्य.... रखना तुम ऐतवार इतना मुझपर, मेरे प्रेम पर...!!

हम फिर मिलेंगे

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 सुनो.. क्या हुआ जो मिल न पाएँ हम इस जनम में, सृष्टि को शायद भाया न हो मिलना हमारा, पर दिल मेरा नाउम्मीद अब भी हुआ नही है, ऐतवार कुछ तुम भी रखना... इस जनम नही तो ना सही, बेशक अगले जनम, किसी और जनम, मिलुँगी मैं अवश्य तुमसे, हो सकता है, मिल सकूं न तुमसे मैं "मैं" बनकर.. पर मिलना हमारा तय है, हो सकता है, मैं मिलूं तुमसे, बहती सरिता की चंचल धारा बन, सरसराती ठण्ढी संदिली पवन बन कर, किसी मन्दिर में पडे़ कुसुम सुमन बन कर, या फिर तुम्हारे घर के आँगन के तुलसी बन कर.. पर मैं तुमसे मिलुंगी अवश्य.... रखना तुम ऐतवार इतना मुझपर, मेरे प्रेम पर...!!

कैसे कहुँ

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 मनःस्थिति मेरी उन्हे समझ आती नही, और दावा ये करते हैं कि प्रेम मुझसे उन्हे असिम और अनन्त है....!!

अगर तुम न मिले होते

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 अक्सर मैं सोंचती हूँ.. अगर तुम ना मिले होते तो... मैं कितनी चीज़ों से वंचित रह जाती.... वो शब्द ,वो वक़्त, ये तन्हाई, वो इश्क़ , वो जस्तुज़ू, वो लम्हे , वो राते ,वो बातें, वो नज़र, वो अहसास, वो अल्फाज...  और ये कमबख्त यादें... और ना जाने कितने एहसास.. जिनसे मैं रूबरू तक न हो पाती... कितनी गैर मुकम्मल सी होती.. मेरी तन्हा जिन्दगी...

इक किताब लिखुं तुम पर

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  जी करता है, एक किताब लिखूँ, पृष्ठ दर पृष्ठ बस तुझे ही लिखूँ, एक ऐसी किताब जहाँ... प्रथम पृष्ठ से अन्तिम पृष्ठ तक बस तेरी ही बातें हो... तुझ संग बिताए हर एक लम्हे का, पूर्णतया हिसाब हो.... प्रेम हो, प्रेम का सम्पूर्ण रंग हो, हम दोनों के मध्य हुए ताने, उलाहने का भी व्याख्यान हो, वादे और कसमों का भी हो लेखा-जोखा, तकरार का भी हो स्पष्टीकरण, तुझ पर और तेरी... ना जाने कितनी बातें है मेरे अन्तर्मन मे संविलीन, उन समस्त बातों को मैं शब्दों में पिरोकर... चाहती हूं कि तुम पर एक किताब लिखूँ... चन्द शब्दों में भला, लिख कहाँ पाती हूँ मैं तुम्हे...??

तुझपर एक किताब लिखूँ

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 जी करता है, एक किताब लिखूँ, पृष्ठ दर पृष्ठ बस तुझे ही लिखूँ, एक ऐसी किताब जहाँ... प्रथम पृष्ठ से अन्तिम पृष्ठ तक बस तेरी ही बातें हो... तुझ संग बिताए हर एक लम्हे का, पूर्णतया हिसाब हो.... प्रेम हो, प्रेम का सम्पूर्ण रंग हो, हम दोनों के मध्य हुए ताने, उलाहने का भी व्याख्यान हो, वादे और कसमों का भी हो लेखा-जोखा, तकरार का भी हो स्पष्टीकरण, तुझ पर और तेरी... ना जाने कितनी बातें है मेरे अन्तर्मन मे संविलीन, उन समस्त बातों को मैं शब्दों में पिरोकर... चाहती हूं कि तुम पर एक किताब लिखूँ... चन्द शब्दों में भला, लिख कहाँ पाती हूँ मैं तुम्हे...??

मेरा सर्वस्व तुमसे ही है

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 प्रेम, प्यार, स्नेह, प्रीति, अनुराग.... सभी तो है मेरा तुमसे, तुमसे ही मेरे हृदय में स्पन्दन है, मेरी समस्त मोह-माया और अनुरक्ति भी तुमसे ही है, तुम्हारा प्रेम मुझमें अंतहिन सरित सा समाया है, निमिष भर का विरह तुम्हारा, मुझे अन्तर तक उद्वेलित, अधीर कर जाता है, प्रेम की सम्पूर्ण विभक्ति मेरी तुमसे ही है, मेरे मन का सुकून आराम सब तुमसे ही है,